Wednesday, January 26, 2011

चूहों कि दौड़

आगे चूहे दौड़ रहे हैं, पीछे चूहे दौड़ रहे हैं,
दायें चूहे बाएं चूहे, मस्त कतारें जोड़ रहे हैं,
बिना रुके बिन खाये पीये घोड़ो के से सरपट सरपट,
इसके आगे भाग रहे हैं, उसको पीछे छोड़ रहे हैं.

कूंच करे किस ओर, कहाँ है जाना, मंजिल और किधर है,
किसे पता है कौन जानता, किसे यहाँ पर पड़ी फिकर है,
"ये साला आगे है कैसे? वो साला अब दूर नहीं है",
बस आगे पीछे का चक्कर, रुकने का दस्तूर नहीं है.

रुके भला भी कैसे कोई, रौंद निकल जायेंगे सारे,
पीछे वाले इसी ताक में ही तो माथा फोड़ रहे हैं,
आगे चूहे...

निकल पेट से आये देखो, चूहे नन्हे प्यारे छोटे,
और कबर के पास खड़े भी इसी दौड़ में शामिल होते,
पतले मोटे, दुर्बल जर्जर, दौड़ रहे हैं हांफ हांफ कर,
देख छलांगे मार रहे हैं, कूद रहे हैं पुछ उठा कर.

ये टाँगे ये कुहनी मारे, इसे गिरा उसको धक्का दे,
ताकतवर चूहे कमजोरो के हाथो को मोड़ रहे हैं,
आगे चूहे ...

फ़ौज बड़ी ये बढती जाये, जो भी चाहे आ मिल जाये,
नहीं फीस कोई लगनी है, जिसको चाहे साथ ले आये,
पर जो आये एक मर्तबा, वापस जाने कि ना सोचे,
देख यहाँ जिसको जितना है, सब ही तो निचोड़ रहे हैं,

आगे चूहे दौड़ रहे हैं, पीछे चूहे दौड़ रहे हैं.

5 comments:

  1. Nice comment on what have be become. What i love the most abt the poem is the childlike simplicity with which the message put across :) Chauri bawaal ho be tum :)

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  2. Mumbai defined completely with no exeption !!!

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  3. Mujhe yeh waala samajh mein aaya :)
    Nice one

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  4. Awesome!! you are quite talented Mr. Archit!!!! bahut achha likha hai, bahut mazaa aaya padh ke. I'm looking forward to reading the other posts as well... :)

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  5. Hehe... thanks a lot... I hope you find other ones worth reading as well ;)

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